कितनी विडंबना है कि कैंसर, एड्स, कुपोषण, शराब, तम्बाकू, गुटखा इत्यादि पर असंख्य विज्ञापन बने हैं इस देश में यहां तक कि लिंगभेद, रंगभेद पर कम ही सही मगर बात हुई ही है लेकिन जातिवाद के खिलाफ कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि इसपर कोई विज्ञापन बना सकें। हर टीवी चैनल पर जातिवाद के ख़िलाफ़ विज्ञापन होना चाहिए था साथ ही सभ्य समाज में आचरण, विचार, मानवीय भावनाओं हेतु व्यवहार कैसा होना चाहिए उसका प्रचार भी जरूरी था।
हाशिये में पड़े समाज अर्थात बहिष्कृत समाज को जगाने, शिक्षित व जाग्रत करने में दक्षिण सिनेमा का बड़ा योगदान रहा है। हिंदी बाहुल्य क्षेत्र चाहे वह सिनेमा हो, साहित्य हो, या मीडिया हो अधिकांश जनजागृति के मामलों में भ्रमित करने वाले तथ्य मिलते हैं बाक़ी गलत परम्परा, मान्यता को पोषित, संरक्षित करने वाला कंटेंट मिलता है। जबतक हमारी मान्यताओं के विपरीत तर्क व उनके तथ्य हमें ज्ञात नहीं होंगे बदलाव कैसे आयेगा?
वर्तमान समय में साहित्य व सिनेमा में काफ़ी बदलाव आया है। भले ही हाशिये के लोगों का प्रतिनिधित्व बेहद नगण्य हो मगर उनकी बातें लगातार हो रही है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि दलित,आदिवासी,पिछड़ों ने अपने वेब चैनल, पत्रिकाएं, यूट्यूब चैनल, सोशल मीडिया के टूल्स, अन्य कॉमन प्लेटफार्म पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी और लोगों तक ऐतिहासिक, वर्तमान परिदृश्य पर अपने विचार प्रेषित किये हैं।
आर्टिकल 15 से लेकर भीमा कोरेगांव, शरणम गच्छामि, सैराट, 500, दी शुद्र या जय भीम इत्यादि तक एक बदलाव की आहट ही नहीं उस पक्ष की पीड़ा, मौजूदगी और समस्यायों पर मंथन है। हिंदी सिनेमा या हिंदी साहित्य की कहानी में दलित केवल सेवक, ड्राइवर, गरीब, शोषित के रूप में ही दिखाई पड़ता है कभी मुख्य हीरो की भूमिका में नहीं दिखा और न ही दलित कलाकार कोई हीरो जैसे बड़े चेहरे में नहीं दिखाई दिया।
अब समय बदल रहा है क्योंकि आप बात करने लगे हैं। बेझिझक बिना किसी की परवाह किये बगैर अपनी बात बोलने लगे हैं। लोग क्या सोचेंगे, लोग क्या बोलेंगे,अंजाम क्या होगा या कौन क्या धारणाएं बनाएगा इसकी चिंता छोड़कर, संवैधानिक दायरे में,सभ्य व शालीनता के साथ अपना पक्ष हर रोज़ रख रहे हैं और गलत बातों का विरोध भी बड़ी मुखरता से कर रहे हैं। यही ताकत है जो आपका ध्यान रहेगा अन्यथा पीड़ित, शोषित,अपमानित और बहिष्कृत ही परिभाषित होंगे।
~ताराचन्द जाटव~